Tuesday, December 3, 2024
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Sunderkand Lyrics / सुंदरकांड पाठ हिंदी में Lyrics

Sunderkand Lyrics

Sunderkand Lyrics भक्ति और कर्म का अनूठा संगम है। यह बताता है कि कैसे निःस्वार्थ सेवा और समर्पण व्यक्ति को ईश्वर के समीप ले जाते हैं। इस ग्रंथ में हनुमान जी के चरित्र के माध्यम से हमें सिखाया गया है कि सच्चा भक्त वह है जो अपने अहंकार को त्याग कर प्रभु के चरणों में लीन हो जाता है। Sunderkand Lyrics पढ़ते हुए, हम महसूस करते हैं कि भक्ति का मार्ग कठिन होते हुए भी कितना सुंदर और आनंददायी है।

Sunderkand Lyrics / सुंदरकांड पाठ हिंदी में Lyrics

सकल सुमंगल दयाक, रघुनायक गुणगान ।
सादर सुनहिती तरि भव, सिंधु बिना जल जान ।।

श्री गणेशाय नमः

श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीरामचरितमानस

पञ्चम सोपान

सुन्दरकाण्ड

श्लोक

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।१।।

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।२।।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।३।।

दुःख हारता जय जय हनुमंता

जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।

जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।

बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।

दो0- हनूमान तेहि परसा, कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु, मोहि कहाँ बिश्राम।।१।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा।।

राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।

तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।

कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।।

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मै पावा।।

दो0-राम काजु सबु करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो, हरषि चलेउ हनुमान।।२।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।

ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।

तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।

नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए।।

सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।

उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।

गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।

अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा।।

(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)

छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।१।।

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।२।।

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।

एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।३।।

दो0-पुर रखवारे देखि बहु, कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि, नगर करौं पइसार।।३।।

(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।

नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।

मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।

पुनि संभारि उठि सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय संसका।।

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।

तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।

दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग।।४।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।

गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।

गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।

सयन किए देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।

भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।

दो0-रामायुध अंकित गृह, सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ, देखि हरषि कपिराइ।।५।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।

मन महुँ तरक करै कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा।।

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।

बिप्र रुप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई।।

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी।।

दो0-तब हनुमंत कही सब, राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन, मगन सुमिरि गुन ग्राम।।६।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।

तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।

अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।

जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।

प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।

दो0-अस मैं अधम सखा सुनु, मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर।।७।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।

पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता।।

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ।।

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।

कृस तन सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।

दो0-निज पद नयन दिएँ मन, राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत, देखि जानकी दीन।।८।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई।।

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा।।

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा।।

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी।।

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा।।

तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही।।

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।

अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।

सठ सूने हरि आनेहि मोहि।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।

दो0- आपुहि सुनि खद्योत सम, रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि, बोला अति खिसिआन।।९।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।

नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी।।

स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।

चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं।।

सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।

सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।

कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।

मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।

दो0-भवन गयउ दसकंधर, इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि, धरहिं रूप बहु मंद।।१०।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका।।

सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना।।

सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी।।

खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।

नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।

यह सपना में कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।

तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं।।

दो0-जहँ तहँ गईं सकल तब, सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि, मारिहि निसिचर पोच।।११।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

त्रिजटा सन बोली कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।।

तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।

आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई।।

सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।

निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।।

देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा।।

पावकमय ससि स्त्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।

सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका।।

नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।

देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता।।

सो0-कपि करि हृदयँ बिचार′ दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि, हरषि उठि कर गहेउ।।१२।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर।।

चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।।

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई।।

सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई।।

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कहि सो प्रगट होति किन भाई।।

तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ।।

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।।

यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।

नर बानरहि संग कहु कैसें।
कहि कथा भइ संगति जैसें।।

दो0-कपि के बचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास।।
जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास।।१३।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयउ तात मों कहुँ जलजाना।।

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी।।

कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।

सहज बानि सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।

कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।।

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।

देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।

जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।

दो0-रघुपति कर संदेसु अब, सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ, भरे बिलोचन नीर।।१४।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।

जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।।

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।

उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई।।

दो0-निसिचर निकर पतंग सम, रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु, जरे निसाचर जानु।।१५।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई।।

रामबान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।।

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।

कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना।।

मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।

कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा।।

सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।

दो0-सुनु माता साखामृग, नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि, खाइ परम लघु ब्याल।।१६।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।

आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।

बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा।।

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता।।

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा।।

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी।।

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।

दो0-देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।१७।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।

रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।

नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी।।

खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।

सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।

सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।

आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।

दो0-कछु मारेसि कछु मर्देसि, कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे, प्रभु मर्कट बल भूरि।।१८।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना।।

मारसि जनि सुत बांधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।

चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।

कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।

अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।

रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।।

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई।।

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।

दो0-ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा, कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ, महिमा मिटइ अपार।।१९।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा।।

तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।

तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए।।

दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।

देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।

दो0-कपिहि बिलोकि दसानन, बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि, उपजा हृदयँ बिषाद।।२०।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहिं के बल घालेहि बन खीसा।।

की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।

मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।

सुन रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचित माया।।

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।

जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन।।

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।

हर कोदंड कठिन जेहि भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली।।

दो0-जाके बल लवलेस तें, जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि, हरि आनेहु प्रिय नारि।।२१।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।

समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।

सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी।।

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।।

मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।

जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई।।

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै।।

दो0-प्रनतपाल रघुनायक, करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं, तव अपराध बिसारि।।२२।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम्ह करहू।।

रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।

राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।

बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषण भूषित बर नारी।।

राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं।।

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।

संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।

दो0-मोहमूल बहु सूल प्रद, त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक, कृपा सिंधु भगवान।।२३।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जदपि कहि कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी।।

बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।

उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।

सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।

आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।

सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर।।

दो–कपि कें ममता पूँछ पर, सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ।।२४।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।

जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई।
देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई।।

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना।।

जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।

रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।

कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।

पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघु रुप तुरंता।।

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भई सभीत निसाचर नारीं।।

दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गरजा, कपि बढि लाग अकास ।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।

जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।

तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहि अवसर को हमहि उबारा।।

हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई।।

साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।

जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।

उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।

दो0-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम, धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें, ठाढ़ भयउ कर जोरि।।२६।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।

कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।

तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।

मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना।।

तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।

दो0-जनकसुतहि समुझाइ करि, बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि, गवनु राम पहिं कीन्ह।।२७।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।

नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।।

हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।

मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।।

मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी।।

चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा।।

तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए।।

रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।

दो0-जाइ पुकारे ते सब, बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि, करि आए प्रभु काज।।२८।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।

एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा।।

आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।

पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।

राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।

फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।

दो0-प्रीति सहित सब भेटे, रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब, कुसल देखि पद कंज।।२९।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।

सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू।।

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।

पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।

कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।

दो0-नाम पाहरु दिवस निसि, ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित, जाहिं प्रान केहिं बाट।।३०।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।

नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना।।

मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।।

अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।

नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।।

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।

नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी।

सीता के अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।

दो0-निमिष निमिष करुनानिधि, जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ, भुज बल खल दल जीति।।३१।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना।।

बचन काँय मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई।।

केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।

प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।

सुनु सुत उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।

पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।

दो0-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल, त्राहि त्राहि भगवंत।।३२।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।

सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।।

कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा।।

कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।

साखामृग के बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई।।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।

दो0- ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं, जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं, जारि सकइ खलु तूल।।३३।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम
(दुःख हरता जय जय हनुमंता
सुख करता जय जय हनुमंता)
रामा, मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।।

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना।।

यह संवाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।

तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा।।

अब बिलंबु केहि कारन कीजे।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।

कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी।।

दो0-कपिपति बेगि बोलाए, आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल, बानर भालु बरूथ।।३४।।

सियावर राम जय जय राम
मोरे मन बसीयो सीता राम

सुंदरकांड पाठ Video

Sunderkand Lyrics के साथ हमारी यह आध्यात्मिक यात्रा यहां समाप्त नहीं होती, बल्कि एक नई शुरुआत करती है। अब हम जीवन की हर चुनौती का सामना हनुमान जी की तरह साहस और भक्ति से करते हैं। यह ग्रंथ हमारे मन में सदैव विराजमान रहता है, हमारा मार्गदर्शन करता है, और हमें याद दिलाता है कि सच्ची विजय वही है जो धर्म और न्याय के मार्ग पर चलकर प्राप्त की जाए।

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